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09 September 2019

Law of variable proportion




लॉ ऑफ़ वेरिएबल प्रोपोरशन परिवर्तित अनुपातों का प्रतिफल
जैसा कि हम जानते हैं अल्पकाल में उत्पादन की कुछ साधन स्थिर रहते हैं तथा कुछ साधन परिवर्तनशील अतः उत्पादन के स्थिर साधन को स्थिर रखते हुए परिवर्तनशील साधारण में परिवर्तन करके इकाइयों में वृद्धि की जाती है इसी विधि की प्रवृत्ति को परिवर्तित अनुपातों के प्रतिफल के नाम से जाना जाता है
इस तरह की स्थिति तब आती है जब स्थिर साधन का उपयोग हट रहा हूं एवं उत्पादन को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है इस कारण से अन्य साधनों को स्थिर रखकर एक साधनों की इकाई को बढ़ाया जाता है जिसके कारण प्रारंभ में कुल उत्पादन में वृद्धि होती है फिर घटती की दर से वृद्धि होती है और अंत में उत्पादन गिरने लगता है
परिवर्ती अनुपात के प्रतिफल को तीन भागों में बांटा जाता है पहली अवस्था दूसरी अवस्था एवं तीसरी अवस्था 

पहली अवस्था जब प्रारंभ में उत्पादन में वृद्धि करने के लिए श्रम की मात्रा अथवा परिवर्तनशील साधनों में वृद्धि की जाती है तो प्रारंभ में सीमांत उत्पादन बढ़ता है उसके साथ साथ कुल उत्पादन भी बढ़ती दर से बढ़ता है परिणाम स्वरूप औसत उत्पादन में भी धीमी गति से वृद्धि होने लगती है अतः यह कहा जा सकता है की प्रथम अवस्था में कुल उत्पादन सीमांत उत्पादन तथा औसत उत्पादन तीनों में ही वृद्धि होती है सीमांत उत्पादन में जब फ्री हो रही होती है तो उसी समय वह अपने अधिकतम पर पहुंचता है और नीचे की ओर गिरने लगता है इसी दौरान कुल उत्पादन में मोड पर हो जाता है जिसे मोड बिंदु अथवा पॉइंट ऑफ इन्फेक्शन के नाम से जाना जाता है इसके बाद पादन घटती दर से बढ़ने लगता है परिणाम स्वरूप औसत उत्पादन में धीमी गति से वृधि हो रही होती है परिवर्तित अनुपात के प्रतिफल की पहली अवस्था को वर्धमान प्रतिफल की अवस्था के नाम से भी जाना जाता है.

दूसरी अवस्था दूसरी अवस्था की शुरुआत में कुल उत्पादन घटती दर से बढ़ना जारी रखता है इस अवस्था में कुल उत्पादन अपने अधिकतम पर हो जाता है उसी समय सीमांत उत्पादन घटते हुए शून्य हो जाता है एवं औसत उत्पादन धीमी गति से घटने लगता है इसका अर्थ यह है कि परिवर्तन संसाधन का उपयोग हो रहा होता है और उसकी कुशलता में लगातार कमी आती जाती है इस अवस्था को  घटती प्रतिफल की अवस्था के नाम से जाना जाता है.

तीसरी अवस्था तीसरी अवस्था में कुल उत्पादन गिरने लगता है सीमांत उत्पादन ऋणआत्मक हो जाता है और औसत उत्पादन अभी भी धीमी गति से नीचे की ओर गिर रहा होता है औसत उत्पादन कभी भी जीरो अथवा ऋण आत्मक नहीं होता इस अवस्था को ऋण आत्मक अवस्था के नाम से जानते हैं 

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